विदर्भ प्रिंट, नागपुर। भारत के वीर सेनानी जिन्होंने भारत को स्वतंत्र कराने के लिए अपना जी जान दांव पर लगा दिया था आज भी उन्हें उनके नाम से जाना जाता है और उनका नाम लेकर गर्व से सीना चौड़ा किया जाता है। आज भी उनके जीवन से भारतीय प्रेरणा लेते हैं और उनके मार्गदर्शन पर चलने की सदैव कोशिश करते हैं। ऐसा ही एक नाम जो भारतीय इतिहास में बहुत ही गर्व के साथ लिया जाता है, “विनायक दामोदर सावरकर” जो एक भारतीय राष्ट्रवादी के रूप में आज भी देखे जाते हैं। वीर सावरकर एक ऐसा नाम जो एक राजनीतिक दल और राष्ट्रवादी संगठन हिंदू महासभा के प्रमुख सदस्य रहकर अपने सभी कर्तव्यों को भलीभांति निभाते रहे। वे पेशे से तो वकील थे लेकिन अपने जीवन के अनुभव से वे एक भावुक लेखक के रूप में भी उभर कर आए। उन्होंने कई सारी कविताओं और नाटकों को अपने शब्दों में व्यक्त किया। उनके लेखन ने सदैव ही लोगों को हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की और जाने के लिए प्रेरणा भरे संदेशों से हमेशा ही लोगों को सामाजिक और राजनैतिक एकता के बारे में समझाते रहते थे। विनायक दामोदर सावरकर एक भारतीय राजनेता, क्रांतिकारी कार्यकर्ता और लेखक थे। वर्ष 1922 में उन्हें महाराष्ट्र की रत्नागिरी जेल में ब्रिटिश सरकार द्वारा हिरासत में लिया गया था जहां उन्होंने हिंदुत्व की राजनीतिक विचारधारा विकसित की, जिसके बाद उन्हें ‘हिंदू राष्ट्रवादी’ के रूप में मान्यता मिली। विनायक दामोदर सावरकर हिंदू महासभा राजनीतिक दल के नेता थे। हिंदू महासभा में अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने हिंदुत्व शब्द को लोकप्रिय बनाने पर ध्यान केंद्रित किया ताकि भारत का मुख्य सार हिंदू धर्म के माध्यम से बनाया जाए। सावरकर हिंदू दर्शन के अनुयायी और नास्तिक थे। विनायक दामोदर सावरकर अभिनव भारत सोसाइटी नामक एक गुप्त समाज के संस्थापक थे, जिसे उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान अपने भाई के साथ स्थापित किया था। जब वह यूनाइटेड किंगडम में कानून की पढ़ाई कर रहे थे, तब वह इंडिया हाउस और फ्री इंडिया सोसाइटी जैसे क्रांतिकारी संगठनों का हिस्सा रहा करते थे। जब विनायक दामोदर सावरकर इंग्लैंड में थे, तब भारतीय राष्ट्रवादी श्यामजी कृष्ण वर्मा ने इंग्लैंड में कानून की पढ़ाई करने के दौरान उनकी मदद की थी। कानून की पढ़ाई पूरी करने के बाद सावरकर 1909 में बैरिस्टर और फिर ग्रे इन के सदस्य बन गए। उसी वर्ष उन्होंने द इंडियन वॉर ऑफ़ इंडिपेंडेंस नामक एक पुस्तक प्रकाशित की, जो ब्रिटिश सरकार को चिंतित कर दिया था। विनायक दामोदर सावरकर को 1910 में ब्रिटिश सरकार द्वारा हिरासत में लिया गया था और क्रांतिकारी समूह इंडिया हाउस के साथ उनके संबंध उभरने के तुरंत बाद उन्हें भारत ले जाया गया। जब उन्हें वापस भारत लाया जा रहा था तो उन्होंने भागने की कोशिश की। हालांकि, उनके सभी प्रयास विफल हो गए। जब फ्रांसीसी बंदरगाह अधिकारियों ने उन्हें पकड़ लिया और अंतरराष्ट्रीय कानून के उल्लंघन के आरोप में उन्हें वापस ब्रिटिश सरकार को सौंप दिया। भारत पहुंचने पर, विनायक दामोदर सावरकर को अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में सेलुलर जेल में दो आजीवन कारावास की सजा दी गई, जिसमें कुल पचास साल की जेल हुई। एक विख्यात लेखक के रूप में विनायक दामोदर सावरकर ने कई पुस्तकें प्रकाशित की जिनमें उन्होंने इस बात की वकालत की थी कि भारत में पूर्ण स्वतंत्रता केवल क्रांतिकारी माध्यमों से ही प्राप्त की जा सकती है। ब्रिटिश सरकार ने द इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस नामक उनकी एक पुस्तक पर प्रतिबंध लगा दिया था, जिसे उन्होंने 1857 के भारतीय विद्रोह के बारे में लिखा था। जब उन्हें जेल से रिहा किया गया, तो उन्होंने 1937 में एक लेखक और एक वक्ता के रूप में हिंदू राजनीतिक और सामाजिक एकता की वकालत करने के लिए पूरे भारत में यात्रा करना शुरू कर दिया। वर्ष 1938 में उन्हें मुंबई में मराठी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त किया गया और इस संगठन के अध्यक्ष के रूप में, उन्होंने एक हिंदू राष्ट्र के रूप में भारत के दर्शन को प्रोत्साहित करना शुरू किया। दामोदर सावरकर ने हिंदू पुरुषों से मिलकर अपनी सेना का आयोजन किया ताकि वह देश और हिंदुओं की रक्षा के साथ-साथ भारत को औपनिवेशिक शासन से मुक्त करा सकें। कांग्रेस पार्टी के अनुसार संभावित जापानी आक्रमण से भारत की रक्षा के लिए यह प्रस्ताव लिया गया था। हालांकि विनायक दामोदर भारत में अंग्रेजों की उपस्थिति के खिलाफ थे। बाद में हिंदू महासभा के अध्यक्ष के रूप में कार्य करते हुए, उन्होंने अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए तनाव महसूस करना शुरू कर दिया और जुलाई 1942 में उन्होंने पद से इस्तीफा दे दिया। उसी दौरान महात्मा गांधी ने भारत में ब्रिटिश शासन के खिलाफ भारत छोड़ो आंदोलन शुरू किया था। 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के बाद उन्हें गांधी की हत्या के मामले में पकड़ लिया गया था, लेकिन पुख्ता सबूत न मिलने के कारण उन्हें सभी आरोपों से बरी कर दिया गया था। 1 फरवरी 1966 को सावरकर ने यह घोषणा कर दी थी कि आज से वह उपवास रखेंगे और भोजन करने से बिल्कुल परहेज करेंगे। उनकी यह प्रतिज्ञा थी कि जब तक उनकी मौत नहीं आएगी तब तक वह अन्न का एक दाना मुंह में नहीं रखेंगे। उनके इस प्रण के बाद लगातार वे अपने उपवास का पालन करते रहे और आखिरकार अपने मुंबई निवास पर 26 फरवरी 1966 में उन्होंने अंतिम सांस ली और वे दुनिया को अलविदा कह गए।
लेखक:- चंदन गोस्वामी