Saturday, April 19, 2025
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सामाजिक व आर्थिक समानता के लिए संघर्ष की अविस्मरणीय गाथा



 नागपुर। महाड के चवदार तालाब में सभी अर्थात अछूतों के लिए पानी उपलब्ध नहीं था। उन्होंने सत्याग्रह करने का निर्णय लिया क्योंकि जल का अर्थ जीवन था, यह उनसे छीन लिया गया। मार्च 1927 को सत्याग्रही तालाब के लिए रवाना हुए। पानी पाना मानवता का अधिकार और प्रकृति का उपहार और एकमात्र रास्ता था। अछूत के रूप में जिन लोगों को बम्बई के एक कॉलेज में पानी का कष्ट सहना पड़ा, जिन्हें बड़ौदा के एक होटल में पीटा गया, वे वास्तव में सत्याग्रहियों के सेनापति डॉ. अम्बेडकर सबसे आगे थे। सभी लोग तालाब के पास पहुंचे, सबसे पहले उन्होंने पानी का एक घूंट लिया और दूसरों को पीने दिया। डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर का जीवन भारतीय लोगों की समानता के संघर्ष की एक अविस्मरणीय गाथा है। उनके जीवन से जुड़े कई पहलू हैं जैसे दलित समर्थक, धार्मिक सुधारक, कट्टरपंथी विद्वान, समाजशास्त्री और संविधान निर्माता। ऐसे बहुमुखी व्यक्तित्व को ध्यान में रखते हुए, उन्होंने राष्ट्रीय एकता के साथ-साथ उस समय के सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों से कैसे निपटा, इसके बारे में भी सोचा। इन सभी पहलुओं पर नज़र रखना अध्ययन का विषय है। तब उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि हमारा समाज एक संघ होना चाहिए। उनका विचार संपूर्ण समाज को बुद्धिमान बनाकर छोड़ने का था। उन्होंने रामदास के संदेश “जे-जे आपणांसी ठावे, ते-ते इतरांशी सांगावे, शहाणे करुनही सोडावे सकल जण” को व्यवहार में लाया और दूसरों से भी कहा कि उन्हें इस संदेश को नजरअंदाज नहीं कर सकते।
नासिक के कालाराम मंदिर में प्रवेश पाने के लिए 5 वर्षों के निरंतर संघर्ष के बाद अंततः 1935 में नासिक का कालाराम मंदिर अछूतों के लिए खोल दिया गया। उसी समय उन्होंने येवले (नासिक) में बौद्ध धर्म स्वीकार करने की घोषणा की। उसी दौरान उन्होंने ‘बहिष्कृत भारत’ नामक पत्रिका शुरू की। हमारे भारत देश पर अंग्रेजों का शासन था उसके बाद भारत 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्र हुआ। भारत के लोगों पर एक विशिष्ट तरीके से शासन किया जा सके, इसलिए भारत का एक स्वतंत्र संविधान बनाना आवश्यक हो गया। इसके लिए भारतीय विद्वानों की एक संविधान (विशेषज्ञ) समिति नियुक्त की गई थी। जिसमे बॅरि. तेजपाल सप्रू, बॅरि. जयकर और बॅरि. अम्बेडकर थे। लेकिन बाकी दो विशेषज्ञों के इंकार के कारण पं. जवाहरलाल नेहरू ने यह जिम्मेदारी बॅरि. अम्बेडकर को सौंपी जिसे उन्हौने स्वीकार कर लिया। यदि इस महान न्यायविद् का पिछला जीवन बहुत बुरा व्यतित होने के बावजूद तो वे लापरवाही से बेबाक तरीके से बोल सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। फिर भी जाति-बहिष्कृतों का आंदोलन आसानी से वर्ग-संघर्ष का रूप ले सकता था, जिससे भारत की एकता टूट गई होती और धर्म के नाम पर देश को नष्ट कर दिया गया होता। ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाती, परंतु ‘भारतीय’ उनका स्थायीभाव था। वह भारतीय समाज में बदलाव चाहते थे, लेकिन उनका मानना था कि सामाजिक जागरूकता ही इसका एकमेव रास्ता है। इसीलिए उन्होंने अपनी राष्ट्रीय निष्ठा कभी नहीं छोड़ी। वे राष्ट्रीय एकता के विचार को सबसे महत्वपूर्ण मानते थे।
    अपना तथा दूसरों का ध्यान रखते हुए चे राष्ट्रीय निष्ठा को अन्य निष्ठाओं के अधीन मानते थे। यह भावना पैदा करना और पोषित करना महत्वपूर्ण है कि हम सभी भारतीय हैं। इस निष्ठा का मुकाबला कोई भी निष्ठा नहीं कर सकती। उन्होंने अपनी राष्ट्रीय निष्ठा को संकीर्ण जातीय, धार्मिक या राजनीतिक तथा अन्य हितों के लिए नहीं छोड़ा। देखने में आएगा कि, उनकी यह भावना आजादी के बाद के दौर में भी सक्रिय रही जब उन्होंने सत्ता में भागीदारी की, कानून मंत्री रहते हुए रिपब्लिकन पार्टी का गठन किया और धर्म परिवर्तन की घोषणा की। अत: वास्तविक अर्थों में उन्हें राष्ट्रीय नायक कहा जाना चाहिए। सचमुच डॉ. क्या अम्बेडकर के बिना यह देश विकसित हो पाता ? इस पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। डॉ. अम्बेडकर को कानून मंत्री के रूप में चुना गया और उन्होंने दिन-रात कड़ी मेहनत की और अपनी सारी बुद्धि लगाकर 2 साल 11 महीने और 17 दिन में संविधान लिखकर पूरा किया। इसलिए उन्हें भारतीय संविधान का शिल्पकार कहा जाता है। डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर जितनी जिम्मेदारी दुनिया में किसी भी व्यक्ति की नहीं थी। इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि यदि वे अभी भी जीवित होते तो शायद उतने ही दृढ़ निश्चयी होते।
रामजी ने भीम की शिक्षा के लिए कड़ी मेहनत करने का फैसला किया था। यह स्वीकार करते हुए कि उनके बेटे को दैवीय रूप से तीव्र बुद्धि का उपहार दिया गया था, भीम को कुछ लोगों द्वारा उस जाति में पैदा होने के कारण क्षण भर के लिए अपमानित किया गया था जो उस समय हिंदू समाज में एक कच्चे और क्रूर रिवाज के कारण अछूत मानी जाती थी। लेकिन केलुस्कर गुरुजी जो उनसे प्यार करते थे, उनके प्रोत्साहन और मार्गदर्शन के कारण भीम ने 1907 में अपनी मैट्रिक परीक्षा सफलतापूर्वक उत्तीर्ण की, और चाल के लोगों द्वारा उनका जोरदार सम्मान किया गया। बाद में रामजी अपने बच्चों की पढ़ाई के लिए मुंबई आ गए। भीम ने मुंबई के एलफिंस्टन कॉलेज में दाखिला लिया। जाति से अछूत होने के कारण भीम इच्छा होते हुए भी संस्कृत नहीं पढ़ सके। लेकिन फ़ारसी भाषा में उनका प्रथम नंबर था। चूंकि पढ़ाई में आनंद की प्रगति निराशाजनक है, इसलिए उसे नौकरी पर रख लिया, बाद में आनंद और भीम की शादी हो गई। विवाह के समय भीम 14 वर्ष के और रमा 9 वर्ष की थी।
    उन्हौने बडोदा सरकार की छात्रवृत्ति लेकर एलफिंस्टन कॉलेज में प्रवेश मिला। भीमा महार होने के कारण कॉलेज में उन्हें उचित मार्गदर्शन और सहायता नहीं मिली। फिर भी उसी स्थिति में भीमराव ने 1912 में एलफिंस्टन कॉलेज से बी.ए. की उपाधि प्राप्त की। बड़ौदा के महाराजा के कर्ज़ से छुटकारा पाने के लिए उन्हौने नौकरी के लिए आवेदन किया और उन्हें सयाजीराव गायकवाड़ के यहां नौकरी मिल गई। लेकिन जैसे ही उन्हें संदेश मिला कि उनके पिता बीमार हैं, डॉ. अम्बेडकर मुम्बई चले गये। जब वह अपने पिता के लिए बर्फी खरीदने के लिए सूरत स्टेशन पर उतरे, तो ट्रेन चल पड़ी। इसलिए उन्हें घर पहुंचने में देरी हो गई। पिता की आँखें बच्चे को देखने के लिए उत्सुक थीं। जब उन्हें एहसास हुआ कि लड़का आ गया है तो उन्होंने अपनी आँखें खोलीं। अपने प्यारे बेटे से प्यार से उसका हाथ घुमाते हुए उस महान व्यक्ति ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। बड़ौदा के प्रागतिक राजा सयाजीराव साहब ने उन्हें छात्रवृत्ति के साथ अमेरिका भेजा। भीमराव को पता था कि वह अमेरिका केवल शिक्षा के लिए आये हैं इसलिए उन्होंने एक तपस्वी की तरह पूजा की। वह प्रतिदिन अठारह घंटे पढ़ाई में बिताने लगे, और अंतत: 1915 में वे एम.ए. हो गए । इसके बाद उन्होंने विभिन्न विषयों पर दो या तीन प्रबंध लिखे। इन प्रयासों के परिणामस्वरूप 1924 में कोलंबिया विश्वविद्यालय ने उन्हें ‘डॉक्टर ऑफ फिलॉसफी’ की उपाधि से सम्मानित किया। उन्हें सरकारी दफ्तर में बड़ा पद देने के बदले मात्र केवल 225 रुपये पर कड़ी मेहनत करनी पड़ी। यहां तक कि उनके अधिनिस्त लोग भी उन्हें पानी तक नहीं देते थे और दूर से ही उनकी मेज पर फाइलें फेंककर देते थे। भीमराव को यह व्यवहार पसंद नहीं आया और उनके आत्मसम्मान को ठेस पहुंची, इसलिए वे मुंबई लौट आए।
    इसके बावजूद उन्होंने हार नहीं मानी, थोड़े से प्रयास से उन्हें सिडेनहैम कॉलेज में प्रोफेसर की नौकरी मिल गई, धन इकट्ठा किया और 1920 में वे अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए एक बार फिर लंदन चले गए। वहां उन्होंने सुबह आठ बजे से शाम पांच बजे तक विभिन्न पुस्तकालयों में किताबें पढ़ीं और रात के दस बजे के बाद दिन के उजाले तक अपनी पढ़ाई जारी रखी, जिसके परिणामस्वरूप 1923 में उन्हें लंदन विश्वविद्यालय द्वारा ‘डॉक्टर ऑफ साइंस’ की उपाधि प्रदान की गई। उन्होंने मांग की कि वर्षों से जाति बहिष्कृत वर्ग के साथ जो अन्याय हुआ है, उनका समाधान किया जाये। अछूतों की इस लड़ाई को लड़ते हुए उन्होंने रचनात्मक और व्यापक रुख अपनाया और अछूतों में अपने दम पर कुछ करने की चेतना पैदा करने के लिए अपने काम को आगे बढ़ाना शुरू किया। उनमें से पहला 1940 में उनके द्वारा शुरू किया गया पाक्षिक ‘मूकनायक’ था।
    जब हम इस सिद्धांत को जानते हैं कि “पिकते तेथे विकत नाही” तो हम अपने पास मौजूद व्यक्ति के गुणों को पहचान नहीं सकते। यह सर्वविदित तथ्य है कि दूसरा आदमी इसे जानता है। इसीलिए 1 जून 1952 को अमेरिका की कोलंबिया यूनिवर्सिटी ने उन्हें ‘डॉक्टर ऑफ़ लॉ’ की उपाधि से सम्मानित किया। डॉ. अम्बेडकर ने स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व के लोकतांत्रिक सिद्धांतों की वकालत करते हुए कई किताबें लिखीं, भाषण दिए और दलितों के प्रति अपना रुख समझाया। उनकी प्रेरणा से न केवल स्कूल, प्री-स्कूल बल्कि उच्च शिक्षा महाविद्यालय भी शुरू किये गये। उन्होंने शिक्षा, समाज कल्याण, अर्थशास्त्र, राजनीति में अपने स्वतंत्र एवं तर्कसंगत विचार प्रस्तुत किये। जैसे-जैसे दलित समाज जागरूक हुआ, उन्हें ज्ञान के महत्व का एहसास हुआ। आज समाज में अनेक दलित बुद्धिजीवियों के रूप में पहचाने जाते हैं, उसके पीछे डॉ. बाबासाहब की प्रेरणा है। समाज ने उनके विषय के प्रति अपना सम्मान अनेक प्रकार से व्यक्त किया। आज उनके नाम पर अनेक विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।
हिंदू धर्म से अन्य धर्मों में परिवर्तन के बारे में सोचते समय भी, 14 अक्टूबर 1956 को नागपुर शहर में लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म की दीक्षा ली, जिसकी उत्पत्ति भारत में हुई थी। यदि हम दृढ़ निश्चय कर लें कि हमें जो धम्म प्राप्त हुआ है, उसका भली-भांति पालन करें, ऐसा न हो कि महार लोग उसे बदनाम न करे, तो हम अपने साथ देश ही नहीं, विश्व का भी उद्धार कर सकेंगे। क्योंकि वैश्विक स्तर पर इस धर्म का ऋण बढ़ता जा रहा है। आज भारत ने डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर के निंधन के कारण सामाजिक और आर्थिक समानता के लिए लड़नेवाले एक योद्धा को खो दिया है, इस महान महापुरुष के 68 वें महापरिनिर्वाण दिवस पर पुण्यस्मरण ! 
प्रवीण बागड़े 
नागपुर,मो.9923620919

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